रविवार, 16 अक्टूबर 2016

कवियों की रामलीला



कवियों की रामलीला (केवल आनंद के लिए)

आज सुबह शशांक को रावण बना देख मुझे एक शरारत सूझी सोचा अगर कवियों  को रामलीला करनी पड़े तो स्टार कास्ट कुछ यूँ संभव लगती है।
रावण शशांक बन ही गये। सुरेश अवस्थी कवि बनने के पहले बांणासुर बनते ही थे। अपने नीरज जी विश्वामित्र ठीक , राम के लिए उम्र ज्यादा हो गयी है फिर भी अरुण जैमिनी से अच्छा चेहरा मुझे कोई लगता नहीं। कुमार को लक्ष्मण। सुना सुना चुटकुले ,चौपाइयां और ज्ञान परशुराम की भौं निकाल देगा, परशुराम वैसे पंवार जी से बेहतर कोई नहीं पर ज़रा शरीर ढीला हो गया है फिर भी फुल ड्रेस में उन्हें ही कास्ट करूँगा, कहूँगा ज़रा खाने से ज्यादा पीने पर ज़ोर दें। मदन मोहन समर अंगद के लिए फिट हैं। हालाँकि लोग कहेंगे यार पांव कम जमाये खुद जादा जमें। मंथरा का रोल सर्वेश अस्थाना से बेहतर कवियों में कोई नहीं कर सकता केवल राम ही नहीं अपनी पर आ जाए तो कैकेई को भी वनवास करा दे भगवान् कसम। नारद सुदीप भोला ..नारायण नारायण ..चाचू ..चाचू ..करता हुआ हर जगह हाज़िर। राम अगर अरुण जैमिनी है तो सीता शैलेश लोढ़ा से बेहतर कोई हो नहीं सकता वाह वाह क्या बात है। व्यास पीठ का जिम्मा सत्तन दादा को। उनसे ज्यादा न रामायण किसी को याद है और न कोई रामलीला का सञ्चालन कर सकता है। संपत बुरा मान जाएंगे अगर उन्हें जटायू न बनाया। बचा पाये न बचा पाएं पर सीता के लिए संघर्ष में पंख कटवाने के बावजूद चोंच मारना नहीं छोड़ेंगे। चाहें जान चली जाय। लव-कुश के लिए चिराग और शम्भू ठीक। चिराग लव और शम्भू कुश। शम्भू कुश इसलिए कि कुश को बनाया गया था खर पतवार से कोई पैदा थोड़े ही हुए थे। विष्णु को मुख्य नर्तकी का रोल जब दांती पीस कर कहेगा उंगलियों में दुपट्टा तो ...हंगामा हो जायेगा और सुनील जोग्गी चिरपोटना यानी जोकर जो हंसाने के लिए कुछ भी करेगा।कुम्भकरण प्रदीप चौबे से बेहतर कोई नही। मंच पर सोयेंगे और बीच बीच में रावण के अनुचर थर्मस से उनकी सेवा में रहेंगे रात भर। सूर्पनखा पद्म श्री सुरेन्द्र दुबे ही जचेंगे। गजेन्द्र सोलंकी को शत्रुघ्न बनाऊंगा ताकि राम लीला का मुख्य पात्र होकर भी द्रश्य से जादातर गायब ही रहें । भीड़ में घुसकर (हालांकि अभी चलने फिरने में दिक्कत हैं पर जब तक मंचन होगा दौड़ने लगेगा) आरती के पैसे का जिम्मा रमेश मुस्कान का ही होगा। सिगरेट की आदत की वजह से धार्मिक मंच पर कोई रोल उचित नहीं होगा। भरत तेज नारायण ठीक रहेगा ,रहेगा राम के साथ पर रावण से लड़ेगा नहीं। जामवंत का रोल उदय दादा का। ज्यादा कुछ करना धरना नहीं बस हनुमान को याद दिलाना है उनका बल वो भी अगर उन्हें याद रहा तो.. वरना अपने हनुमान जी उन्हें खुद याद दिला देंगे कि मुझे याद दिलाओ। आखिर बिना पद्मश्री वाले सुरेंद्र दुबे जो हनुमान बनेगें। जिन्हें अपने बल के साथ साथ जामवन्त का बल भी याद रहता है। लंका दहन का भी सीन होगा। अनुभवी है बचा बचा के आग लगाएंगे ताकि सीन जले पूछ नही । वरना रामलीला के बाद कौन पूंछेगा? कुंवर बेचैन विश्ववामित्र के गेट अप में हमेशा तैयार रहेंगे परदे के पीछे। पता नहीं कब नीरज जी दाढ़ी मूंछे नोच नाच कर राम सिंह के साथ मंच छोड़ कर व्हील चेयर पर बैठ जाएँ । परदा उठाने गिराने की ज़िम्मेदारी रहेगी सुरेन्द्र सुकुमार की। कद का लाभ रहेगा। अगर कही परदे की गरारी अटकी तो हाथ से ही परदा उठाता गिराता रहेगा। सुग्रीव दिनेश रघुवंशी . नल मैं नील रमेश शर्मा दोनों राम राम लिखकर पथ्थर तैराते रहेंगे। अपना प्रवीण वो गिलहरी जो प्रण प्राण से सेतु हेतु जुटी रहेगी। इस रामायण के रचियता होंगे यानि संवाद लेखक सुरेन्द्र शर्मा। अशोक चक्रधर का निर्देशन रहेगा। उद्घटान बैरागी जी करेंगे। और समापन संतोषानंद। शेष जितने भी बचेंगे उन्हें रामा दाल और रावण की सेना में बाँट दिया जायेगा। सबका स्क्रीन टेस्ट होगा जो पास वो रावण के दल में और जो फेल वो रामा दल में । प्रताप फौजदार और मंजीत सरदार का नो टेस्ट । इन्हें भाला पकड़ा कर राम और रावण दरबार का दरबान बना दिया जायेगा ताकि ये सिर्फ देखें बोले नहीं। विभीषण रहा जा था तो विनीत याद आ गया । वैसे अभी पता करना है वो इस समय है किस दल में। 
चूँकि यह दशहरा की राम लीला की कास्ट है कोई फ़िल्म नहीं रही इसलिए इसमे कवियत्रियों को नहीं लिया गया है।

मैंने बहुत आनंद में यह कास्ट की है आशा है आप भी आनंद लेंगे और मुझे कोई कास्ट नहीं चुकानी पड़ेगी। प्रमोद तिवारी

गुरुवार, 8 सितंबर 2016

राकेश बा द राइडर

राकेश कुमार सिंह .......................... एक मस्तमौला साइकिल सवार 


जैसा कि मैंने एक श्रृंखला प्रारम्भ करी थी जिसमे मैं अपने उन फेसबुक मित्रों के बारे में लिख रहा हूँ जो कुछ
नायाब कर रहे है। पिछली पोस्ट में मैंने आपका परिचय कविताकोश के संस्थापक ललित कुमार जी से करवाया था। उसके बाद काफी समय हो गया और व्यस्तताओं के कारण मैं कुछ लिख भी नहीं पाया। किसके बारे में लिखना है ये तो तय ही कर चुका था।

\
Rakesh Kumar Singh 
Mr. Rakesh with Prof. Nivedita Menon (JNU)




















अबकी बार Ride For Gender Freedom वाले राकेश कुमार सिंह के बारे में लिखना था। आज उनसे आपका परिचय करवा रहा हूँ। मौका भी बड़ा अच्छा है। अभी कुछ दिन पहले ही  राकेश भाई India International Centre में मिले थे। उन्हें Global Gender Hero Award से नवाजा गया था। सर्वप्रथम राकेश भाई को बधाई। और कल ही राकेश भाई अपने शहर कानपुर में थे। 

राकेश कुमार सिंह बिहार के रहने वाले है। दिल्ली विश्वविद्यालय से पढाई की और उसके बाद मीडिया इंडस्ट्री में काम किया। उन्हें CSDS की सराय स्कालरशिप भी मिल चुकी है। उन्होंने एक किताब 'बम शंकर टन गणेश' भी लिखी है जो हिन्द-युग्म प्रकाशक से आ चुकी है।  आप उस किताब को ऑनलाइन अमेज़न या फ्लिप्कार्ट से खरीद सकते है।  ये तो हुआ उनका परिचय अब आते है उनके काम पर। राकेश भाई 3 साल पहले दिल्ली से लैपटॉप कुछ कपड़े लेकर निकल पड़े थे और चेन्नई से उन्होंने एक साइकिल यात्रा शुरू की जिसका मकसद लोगों को लैंगिक स्वतंत्रता के प्रति जागरूक करना है। इतने सालों से वो ....... राज्य के विभिन्न शहरों और गांवों में साइकिल से जा चुके है। आजकल वो UP के कानपुर होते हुए इटावा की ओर बढ़ रहे है। वो गाँव-शहर के चौक-चौराहों, मेलों हाट आदि में जाते हैं और लोगों से बात करते है। वे कहीं-कहीं कठपुतलियों का प्रदर्शन भी करते है। राकेश जी से मेरा परिचय लगभग डेढ़ साल पहले फेसबुक पर हुआ था। राकेश भाई लखनऊ किसी कार्यक्रम में आये थे तो उसकी पोस्ट से उनके बारे में जानकारी मिली। राकेश भाई से बात हुई तो उन्हें कानपुर आने का निमंत्रण दिया। कानपुर के सरस्वती ज्ञान मंदिर आजादनगर में उन्होंने स्कूल के बच्चों से जेंडर फ्रीडम को लेकर बात की। उसके बात विश्व पुस्तक मेला 2015 में भी अच्छी मुलाकात हुई। राकेश भाई अब 2016 में UP की यात्रा कर रहे है। आप उनसे E Mail, Phone या website से संपर्क कर सकते हैं।

Mob:  +91-9811972872
Email: rakeshjee@gmail.com
Web: www.genderfreeedom.in 



आयुष शुक्ला

गुरुवार, 4 अगस्त 2016

नदिया धीरे-धीरे बहना .....................

नदिया धीरे-धीरे बहना .....................

मेरें कुछ पसंदीदा गीत हैं या यूँ कहें कि कुछ पसंदीदा कवि है. उन कवियों में ही कानपुर के एक दुलारे कवि है. अक्खड़ भी है मौजूं भी है. पेशे से अख़बार के संपादक रहें है और जब अख़बार मालिकों से बनी नहीं तो अपना अखबार 'हेल्लो कानपुर' खोल लिया. कानपुर, देहरादून और दिल्ली होते हुए फिर कानपुर आ गये. जहाँ भी गये वहाँ कुछ नया किया चाहे 'शहरनामा' हो या 'मचखुं मिंयाँ' या फिर 'चौथा कोना'. उसके बाद अन्ना आंदोलन में 'मैं हूँ अन्ना' की टोपी लेकर कानपुर का प्रतिनिधित्व किया. आजकल देश भर में कवि-सम्मलेन मंच के जाने-माने गीतकार है. उनके कुछ प्रतिनिधि गीत हैं जिनके विशेष नाम हैं जैसे 'टॉफी', 'चूरन' और 'नदिया'. जी हाँ, शायद आप पहचान गये होंगे अपने कानपुर वाले प्रमोद तिवारी जी को. नदियाँ गीत मेरे पसंदीदा गीतों में से एक है. जब भी अकेले होता हूँ उसे गुनगुनाता हूँ. आप भी पढ़िए और सुनिए 'नदिया धीरे-धीरे बहना.......'





नदिया धीरे-धीरे बहना
नदिया घाट-घाट से कहना
मीठी-मीठी है मेरी धार 
खारा-खारा है सारा संसार 

तुझको बहते जाना है 
सागर का घर पाना है
सागर से पहले तुझको 
गागर-गागर जाना है
सागर की बहना नदिया 
गागर से कहना नदिया

गति में है जीवन का श्रृंगार 
बांधो न पावों में दीवार

रस्ते मुश्किल होते हैं
फिर भी हासिल होते हैं
बहते पानी के संग-संग
प्यासों के दिल होते हैं
बहना,
बस बहना नदिया 
कुछ भी हो
सहना नदिया
सब पे लुटाना 
अपना प्यार
कहना 
इसको कहते हैं धार

सीमाएं क्या होती हैं
कैसे तोड़ी जाती हैं
तोड़ी सीमाएं फिर से
कैसे जोड़ी जाती हैं
सबको समझाना 
नदिया
सबको बतलाना 
नदिया 
सीमाओं में भी है विस्तार
साधो न लहरों पर तलवार

प्रचलित गतियों से बचना 
अपना पथ खुद ही रचना 
अपनी रचना में तुमको 
झलकेंगी गंगा-जमुना
अपना पथ
अपना होगा
अपना रथ 
अपना होगा
अपनी ही होगी 
फिर रफ़्तार
अपनी कश्ती 
अपनी पतवार

सागर के घर जब जाना
थोडा सोना सुस्ताना
स्थिरता का सुख  
क्या है

इसकी तह तक भी जाना 
किरणें सर पर नाचेंगी 
सूरज का ख़त बाचेंगी
ख़त में होगा जीवन का सार
लेना फिर बादल का अवतार 
नदिया धीरे-धीरे बहना ........
नदिया घाट-घाट से कहना ..........
मैं ही हूँ बादल का अवतार 
फिर मैं गाऊंगा गीत मल्हार 

.........................................................................(प्रमोद तिवारी)

गुरुवार, 14 जुलाई 2016

एक ख़त अपने दोस्तों, साथियों के नाम

एक ख़त अपने दोस्तों, साथियों के नाम 



जब रहीम चचा कल्ले में पान दबाए हुए दुकान के सामने से निकलते थे तो बोलते थे 
राम राम मिश्र जी क्या हाल है?
और मिश्र जी जवाब देते हुए कहते थे 
असलामवालेकुम चचा बस आपकी ही दुवा है।

ये है भारत जिसे मैंने देखा है,जिसको आज़ाद कराने की लड़ाई बिस्मिल और अश्फाक ने साथ लड़ी थी। 

आज हमने इसे कहाँ पंहुचा दिया है? ऐसा लगता है की चारो तरफ सिर्फ नफरत फ़ैलाने का ही धंधा हो रहा है। मैं जब कभी सोशल मीडिया पर देखता हूँ तब चिंतित हो जाता हूँ। जिन्होंने कभी बाबरी का विध्वंस नहीं देखा जो शायद उस समय पैदा भी न हुए हो वो नौजवान पीढ़ी तकनीकी का उपयोग भी सिर्फ फिरकापरस्ती एवं वहामपरस्ती फैलाने में कर रही है। इसी सोच के आधार पर हमने विश्वशक्ति बनने का सपना पाला है। सिर्फ इतना ही नहीं किसी शहर में रात को कहीं कोई धार्मिक पोस्टर फाड़े जाने की अफवाह फैलती है सुबह होते होते वहाँ पर लोगो का जमावाड़ा लग जाता है। कहासुनी से शुरु हुई बात मारा पिटी पर आ जाती है। DM, SSP शहर की पूरी ताकत उस दंगे को शांत कराने में झोक दी जाती है। कही आगज़नी तो कही कत्लेआम दिखाई देता है। अगले दिन रात होते होते शहर फ़ौज़ की छावनी बन जाता है। 
माँ अपने बच्चे को पानी पिला कर सुला देती है, दूध की दुकान आज बंद है। रोज कमाने खाने वाले बिरजू को आज शायद भूखा ही सोना पड़ेगा क्योकि आज काम पर नहीं जा सका। कोने पर सायकिल का पंचर बनाने वाला इसरार आज इस सोंच में पड़ा हुआ है की कल बीवी की दवाई के लिए पैसे कहाँ से आएंगे।

जब आप पूछेंगे ये सब क्यों .....?

एक ही जवाब 
दोस्त मेरे शहर में दंगा हुआ है।

दोस्त ! दंगे तो आज आम हो गए 
हम हिन्दू तो आप मुसलमान हो गए 

कभी पता करो क्या था उन बच्चों का मज़हब
जो उस रात भरे बाजार अनाथ हो गए ।

मंदिर मस्जिद देखो तो आज भी खड़े है कितनी शान से 
जिनके लिए इंसान उस दिन हैवान हो गए ।

1931 को जिस शहर में दंगे को शांत कराते समय गणेश शंकर विद्यार्थी जी शहीद हुए थे उसी शहर में 25 oct 2015 को उनके जन्मदिन से पहले फिर दंगा होता है तो मुझे लगता है की हम अपने शहीदों से कुछ सीख नहीं पाये। हम आज भी वहीँ खड़े है जहाँ 60 साल पहले खड़े थे। आखिर क्यों.....?

हिंदुस्तान की सीमाएँ बाघा अटारी बॉर्डर पर लगे दरवाजों से तय नहीं होती न ही बंगाल और बांग्लादेश की सीमा पर लगे कंटीले तार ये तय करते है की हिंदुस्तान की सीमाएँ कहाँ तक है। हिंदुस्तान की सीमाएँ तय होती है उस एक फ़क़ीर से जिसमे अमेरिका में अपने भाषण की शुरुवात जैसे ही अमेरिका वासी भाइयों एवं बहनो से की पूरा कोलंबस हाल 2 मिनट तक तालियों से गूंजता रहा। हिंदुस्तान की सीमाएँ तय होती है 23 साल के उस नौजवान से जिसने इस वजह से फाँसी स्वीकार कर ली की देश के नौजवानो में क्रांति की लहार दौड़ उठे। हिंदुस्तान की सीमाएँ तय होती है उस शेरशाह से जिसका नाम कैप्टेन विक्रम बत्रा होता है जो टाइगर हिल पर तिरंगा फहराते हुए कहता है की ये दिल मांगे मोर। हिंदुस्तान की सीमाएँ तय होती है वीर अब्दुल हमीद से। हिंदुस्तान की सीमाएँ तय होती है उस मेजर संदीप उन्नीकृष्णन से जो मुम्बई हमले के दौरान बिना बुलेट प्रूफ जैकेट पहने आतंकियों से ये कहते हुए भीड़ जाता है नीचे संभालों ऊपर मैं अकेले देख लूंगा।
दोस्त हिंदुस्तान की सीमाएँ तय होती है उस अब्दुल कलाम से जिनके इंतकाल के समय पूरा देश रोया था। 
हिंदुस्तान की सीमाएँ तय होती है आपसे और मुझसे। बस अदम साहब की एक गजल याद आ गयी....

हिन्दू या मुस्लिम के अहसासात को मत छेड़िये
अपनी कुरसी के लिए जज्बात को मत छेड़िये

हममें कोई हूण, कोई शक, कोई मंगोल है
दफ़्न है जो बात, अब उस बात को मत छेड़िये

ग़र ग़लतियाँ बाबर की थीं; जुम्मन का घर फिर क्यों जले
ऐसे नाजुक वक्त में हालात को मत छेड़िये

हैं कहाँ हिटलर, हलाकू, जार या चंगेज़ ख़ाँ
मिट गये सब, क़ौम की औक़ात को मत छेड़िये

छेड़िये इक जंग, मिल-जुल कर गरीबी के ख़िलाफ़
दोस्त, मेरे मजहबी नग्मात को मत छेड़िये।

---------------------------------------आयुष शुक्ला

रविवार, 19 जून 2016

पिता के नाम...............

पिता के नाम 


ओ पिता! 
तुम थक गये होगे 
चाहता हूँ
हाथ दाबूं
पाँव दाबूं
और हर लूँ
हर थकान
हर बोझ
                  अरसे से धरा                 
              जो सर तुम्हारे..............


ओ पिता !
सच-सच  कहो
तुम निरंतर पीली हुई जाती 
फसल का बोझ ढोते
झुक गये होगे 

ओ पिता !
तुम थक गये होगे 

शाम जब तुम लौटते हो
घर पसीने से नहाये सोचता  हूँ
रास्ते में पेड़ के नीचे 
घडी भर को रुके होगे 
क्यों नहीं मैं रास्ते का पेड़ 
जो देता तनिक आराम
थोड़ी छाँव 
तपती देह को ओ पिता !
सच-सच कहो 
उस रास्ते के 
पेड़ के निचे 
मुझे तुम याद करके 
रुक गये होगे 
 ओ पिता ! 
तुम थक गये होगे 

( प्रमोद तिवारी )
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ओ पिता,
तुम गीत हो घर के
और अनगिन काम दफ़्तर के।

छाँव में हम रह सकें यूँ ही
धूप में तुम रोज़ जलते हो
तुम हमें विश्वास देने को
दूर, कितनी दूर चलते हो

ओ पिता,
तुम दीप हो घर के
और सूरज-चाँद अंबर के।

तुम हमारे सब अभावों की
पूर्तियाँ करते रहे हँ
सकरमुक्ति देते ही रहे हमको
स्वयं दुख के जाल में फँसकरओ पिता,
तुम स्वर, नए स्वर के
नित नये संकल्प निर्झर के।
( कुँवर बेचैन )
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बाप की दौलत से यूँ दोनों ने हिस्सा ले लिया,
भाई ने दस्तार ले ली मैंने जूता ले लिया !

( मुनव्वर राना )

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दवाओं की शीशियाँ खाली पड़ी हैं लिफ़ाफ़े फटे हुए हैं चिट्ठियाँ पढ़ी
जा चुकी हैं अब तुम दहलीज़ पर बैठे इंतज़ार नहीं करते बिस्तर में
सिकुड़े नहीं पड़े रहते सुबह उठकर दरवाज़े नहीं खोलते तुम हवा पानी
और धूल के अदृश्य दरवाज़ों को खोलते हुए किसी पहाड़ नदी और
तारों की ओर चले गये हो ख़ुद एक पहाड़ एक नदी एक तारा बननेके लिए.

तुम कितनी आसानी से शब्दों के भीतर आ जाते थे. 
दुबली सूखतीतुन्हारी काया में दर्द का अण्त नहीं था 
और उम्मीद अन्त तक बचीहुई थी. 
धीरे-धीरे टूटती दीवारों के बीच तुम पत्थरों की अमरता खोज लेते थे.
 ख़ाली डिब्बों फटी हुई किताबों और घुन लगी चीज़ों में जो
जीवन बचा हुआ था उस पर तुम्हें विश्वास था. 
जब मैं लौटता तुम उनमें अपना दुख छिपा लेते थे. 
सारी लड़ाई तुम लड़ते थे जीतता सिर्फ़मैं था.
( मंगलेश डबराल )
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पिता…पिता जीवन है, सम्बल है, शक्ति है,
पिता…पिता सृष्टी मे निर्माण की अभिव्यक्ती है,
पिता अँगुली पकडे बच्चे का सहारा है,
पिता कभी कुछ खट्टा कभी खारा है,


पिता…पिता पालन है, पोषण है, परिवार का अनुशासन है,
पिता…पिता धौंस से चलना वाला प्रेम का प्रशासन है,
पिता…पिता रोटी है, कपडा है, मकान है,
पिता…पिता छोटे से परिंदे का बडा आसमान है,


पिता…पिता अप्रदर्शित-अनंत प्यार है,
पिता है तो बच्चों को इंतज़ार है,
पिता से ही बच्चों के ढेर सारे सपने हैं,
पिता है तो बाज़ार के सब खिलौने अपने हैं,


पिता से परिवार में प्रतिपल राग है,
पिता से ही माँ की बिंदी और सुहाग है,
पिता परमात्मा की जगत के प्रति आसक्ती है,
पिता गृहस्थ आश्रम में उच्च स्थिती की भक्ती है,


पिता अपनी इच्छाओं का हनन और परिवार की पूर्ती है,
पिता…पिता रक्त निगले हुए संस्कारों की मूर्ती है,
पिता…पिता एक जीवन को जीवन का दान है,
पिता…पिता दुनिया दिखाने का एहसान है,


पिता…पिता सुरक्षा है, अगर सिर पर हाथ है,
पिता नहीं तो बचपन अनाथ है,
पिता नहीं तो बचपन अनाथ है,
तो पिता से बडा तुम अपना नाम करो,


पिता का अपमान नहीं उनपर अभिमान करो,
क्योंकि माँ-बाप की कमी को कोई बाँट नहीं सकता,
और ईश्वर भी इनके आशिषों को काट नहीं सकता,
विश्व में किसी भी देवता का स्थान दूजा है,


माँ-बाप की सेवा ही सबसे बडी पूजा है,
विश्व में किसी भी तिर्थ की यात्रा व्यर्थ हैं,
यदि बेटे के होते माँ-बाप असमर्थ हैं,
वो खुशनसीब हैं माँ-बाप जिनके साथ होते हैं,


क्योंकि माँ-बाप के आशिषों के हाथ हज़ारों हाथ होते हैं
क्योंकि माँ-बाप के आशिषों के हाथ हज़ारों हाथ होते हैं


( ओम व्यास )
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तुम्हारी कब्र पर
मैं फातिहा पढ़ने नहीं आया


मुझे मालूम था
तुम मर नहीं सकते

तुम्हारी मौत की सच्ची ख़बर जिसने उड़ाई थी
वो झूठा था
वो तुम कब थे
कोई सूखा हुआ पत्ता हवा से हिल के टूटा था
मेरी आँखें 
तुम्हारे मंजरों में कैद हैं अब तक
मैं जो भी देखता हूँ
सोचता हूँ
वो - वही है
जो तुम्हारी नेकनामी और बदनामी की दुनिया थी
कहीं कुछ भी नहीं बदला

तुम्हारे हाथ
मेरी उँगलियों में साँस लेते हैं
मैं लिखने के लिए
जब भी कलम काग़ज़ उठाता हूँ
तुम्हें बैठा हुआ अपनी ही कुर्सी में पाता हूँ
बदन में मेरे जितना भी लहू है 
वो तुम्हारी 
लग्ज़िशो नाकामियों के साथ बहता है
मेरी आवाज़ में छुप कर
तुम्हारा ज़हन रहाता है

मेरी बीमारियों में तुम
मेरी लाचारियों में तुम
तुम्हारी कब्र पर जिसने तुम्हारा नाम लिक्खा है
वो झूठा है
तुम्हारी कब्र में मैं दफ्न हूँ
तुम मुझ में ज़िन्दा हो
कभी फ़ुर्सत मिले तो फातिहा पढ़ने चले आना



( निदा फाज़ली )
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शुक्रवार, 17 जून 2016

फेसबुक मित्र श्रृंखला - 1 ललित कुमार



न मैं मीर हूँ , न मैं ग़ालिब हूँ
न मैं पन्त हूँ, न मैं निराला हूँ 
न मैं लेखक हूँ, न मैं कवि हूँ
न मैं कोई कलमकार हूँ, न मैं कोई फनकार हूँ
बस एक आदमी हूँ जिसका ऊपर के लोगों से कोई रिश्ता है


जी हाँ, अगर आप साहित्य से जुड़े हैं. कविता, शेरों-शायरी में कुछ दिलचस्पी रखते हैं तो इन्टरनेट पर आपके लिए सर्वसुलभ साधन है 'कविताकोश'.  शायद आपने ने भी कभी जाने-अनजाने में इस साईट को देखा ही होगा. आज से करीब 10 साल पहले 2006 में  IT प्रोफेशनल ने यह सोचा की चलों इन्टरनेट पर कविता प्रेमियों के लिए एक ऐसी साईट बनायीं जाए जहाँ हर भारतीय भाषा में कविताओं का संकलन किया जा सके. बस यही से शुरुवात हो गयी कविताकोश प्रोजेक्ट की. आज कविताकोश में 93,804 पन्ने हैं. कविता, गीत,ग़ज़ल,नज़्म,भजन, जैसी तमाम विधाओं में काव्य का संकलन है.  अवधी,मैथिलि,अंगिका,मराठीभोजपुरी, राजस्थानी आदि क्षेत्रीय कोष के साथ-साथ  31 भाषाओँ में लोकगीत का अद्भुत संकलन है. वीरगाथा काल के चंदरबरदाई से लेकर वर्तमान में कुमार विश्वास तक के कवियों की रचनाओं का नागरी लिपि में संकलन केवल कविताकोश पर ही उपलब्ध है. इस पूरी परिकल्पना का आधार कविताकोश के संस्थापक ललित कुमार जी है. उपरोक्त पंक्तियाँ उन्ही के लिए हैं. मजरूह सुल्तानपुरी ने कभी कहा था


मैं अकेला ही चला था, जानिबे मंज़िल मगर,
 लोग साथ आते गये और कारवाँ बनता गया!

कविताकोश भी कुछ इसी तरह आगे बढ़ता गया और आज कविताकोश के साथ-साथ गद्यकोश की शुरुवात हो चुकी हैं. जैसा मैंने कहा था की इस श्रृंखला में मैं उन लोगों से आपका परिचय करवाऊंगा जो कुछ नायब कर रहे हैं. तो इसकी शुरुवात मैंने ललित जी से कर दी है. ललित जी से मेरी पहली मुलाकात फेसबुक पर कविताकोश के सिलसिले में ही हुई थी. कविताकोश पर कवितायेँ और शायरी तो मैं बहुत सालों से पढता आ रहा था पर एक बार कानपूर में सेंट्रल एक्साइज के राजीव गुप्ता जी ने मुनव्वर राणा के किसी शेर का जिक्र किया तो मैंने उसके आगे का शेर सुना दिया. बाद में पता चला की वो शेर उस दिन उन्होंने कविताकोश के फेसबुक पेज पर पढ़ा था. फिर उन्होंने कविताकोश और ललित जी के बारे में बताया. 
प्रत्यक्ष रूप से मैं ललित जी से इस बार (2016) के अंतर्राष्ट्रीय पुस्तक मेलें में मिल सका. उसके बाद से किसी न किसी सिलसिले में मिलना लगा रहता ही है. 


इसके अलावा वे  दशमलव पर हिंदी ब्लॉगर के रूप में पिछले 6-7 वर्षों से काफी सक्रीय है और Tech Welkin नाम से तकनिकी से सम्बंधित अंग्रेजी ब्लॉग भी चलाते हैं. 

अपनी उम्र वाली पीढ़ी जो ज्यादातर समय इन्टरनेट पर गुजरती है वो जब साहिर और फैज़ को इतनी आसानी से पढ़ पाती है, नीरज के गीत गा पाती है तो कही न कही कविताकोश का योगदान स्पष्ट हो जाता है. अंगिका, मगही, संथाली जैसी भाषाएँ जिनके बारे में कई लोगों ने सुना ही न हो उनमे लिखे गये उत्कृष्ट साहित्य को कविताकोश पर लाने से साहित्य और कविता का संरक्षण एवं वैश्वीकरण संभव हो पाया है. 
इसी श्रृंखला में मिलेंगे फिर किसी नायब व्यक्ति के साथ तब तक आप जुड़ सकते हैं ललित कुमार जी से  और उनके कार्यों के बारे में जान सकते हैं.

Kavitakosh:   www.kavitakosh.org
Gadykosh:     www.gadyakosh.org
Tech Welkin:  www.techwelkin.com
Dashmalav:   www.dashamlav.com


.............................................................................................................................आयुष शुक्ला 








शुक्रवार, 10 जून 2016

प्रेम कवितायेँ


प्रेम कवितायेँ

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बड़ा आसान होता है 
लिखना 
प्रेम कवितायेँ 
बस एक बार 
प्रेम में डूब जाओ
शब्द खुदबखुद 
उतर आएंगे कोरे कागज़ पर
लिख दो फिर
                     प्रेम कवितायेँ......................


पर तुम तो कहते थे
इतना आसान नहीं कविता लिखना 
बहुत ज्ञान चाहिए 
चाहिए छंद विधान 
यति लय गति और तुक
का भी रखा जाए ध्यान


कहता तो था मैं बहुत कुछ 
पर पता अब चला है
सीख कर किसने लिखी हैं यें
'प्रेम कवितायेँ'
दिल लगा है कही तभी 
कोई कीट्स बना होगा कहीं
मज़ाज बना है इश्क़ में डूबकर

बस चलो आज साथ बैठ जाओ
तो लिखे जाएँ कुछ और
'प्रेम कवितायेँ'

गुरुवार, 26 मई 2016

काश मै भी लड़का होती ..................


           काश मै भी लड़का होती ..................


हर बात मुलाकात पर वो कह ही देती थी
की काश मै भी लड़का होती
कोई न फब्तियां कसता 
कोई न उरोजों को घूरता 
आधा पहनती या पूरा 
कोई बात-बात पर न टोकता
काश मै भी लड़का होती.....

मेरी हिफाज़त के लिए 
माँ परेशान न होती 
चार साल के छोटू को 
मेरे साथ बार-बार न भेजती 
    काश मैं भी लड़का होती .......

लेकिन फिर मैं सोचती हूँ 
की आखिर मैं लड़का क्यूँ  होती 
क्या लड़की होना गुनाह है?
नहीं है 
गुनहगार है वो सोच जिसने 
समझा है औरत को सिर्फ एक 'सामान'
इस गुनहगार को अब सूली पर चढ़ाना है 
इसलिए अब मैं नहीं कहती की
काश मैं लड़का होती
मैं लड़की हूँ और काश 
          मैं लड़की ही बनूँ ............... 
                     

आयुष शुक्ला 

गुरुवार, 31 मार्च 2016


चलो आज कुछ बोला जाए......................



चलो आज कुछ बोला जाए
संस्कृति सदाचार के चोले को खोला जाए
बगावत न समझियेगा जनाब!
आज दिल है कि आपको आईने से रूबरू कराया जाए।


पापा की गुड़िया
मम्मा की रानी थी
ये वो दौर था उम्र में तब कुछ कच्ची थी
मैं भी जब बच्ची थी।


आँखों में काजल
बालों में फूल लगाती थी
माँ मुझे 
परी जैसे सजाती थी


पर क्या पता था
इंसानों में भी हैवान होते है
मेरे घर में भी कुछ शैतान रहते है


प्यार महोब्बत
चॉकलेट और
खेल खिलौनों
के नाम पर मैं ठगी गयी

बंद कमरों में मेरी चीखें
कई बार दफ़न हुईं


होंठों से होंठ दबाती रही
दर्द पर दर्द सहती रही 
मैं उस दिन फिर मर गयी
इज़्ज़त का हवाला देके
जब मैं शांत कर दी गयी।


पर अब मैं चुप नहीं रहूंगी
समाज का 'मूक ख़िलौना' न बनूँगी
मैं तो अब इसका आइना बनूँगी।

::: आयुष शुक्ला

रविवार, 17 जनवरी 2016


दहेज़ 
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कल रात 
बापू की चारपाई के पास
एक कागज़ मैंने पाया है ...

जिसपे लिखा हिसाब
मुझे कुछ समझ में
न आया है ..

उसमे लिखा था :-
25 हज़ार मामा ने
32 हजार फूफा ने
और 40 हज़ार चाचा ने
भिजवाया है ..

अपनी खाने की खुराक घटा के
छोटू की कॉलेज की पढाई रुकवा के
मकान की कीमत लाला के यहाँ लगा के

1 लाख रुपये
माँ - बापू ने भी जुटाया है

बुआ ने बेड
मौसी ने कलर टीवी
तो अम्मा ने सोने का कंगन बनवाया है
पर अभी पर अभी
मोटर साइकिल का कोई जुगाड़
न लग पाया है ....

इनसे ख़रीदा जायेगा मेरे लिए
मरा प्यार
मेरा मेरा यार , मेरा बाकी का सारा संसार

मेरा हमसफ़र
मेरा पति परमेश्वर ...........  Ayush Shukla


( The image is borrowed from internet. )

औरत 
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आँखे खुली तो हैं,
फिर भी देखती ही नहीं
भुजाएँ बलवान तो हैं,
फिर भी उठती ही नहीं
शब्द तो बहुत भरे हैं,
ये आवाज़ है की निकलती ही नहीं।

कुछ परेशान सी लगती है,
संस्कृति और समाज
लज़्ज़ा और हया
इन शब्दों से भयभीत सी लगती है।
जांघो को दबाए हुए है,
होंठो को सिये हुए है,
वो जो औरत है
रिश्ते में मेरी बहन लगती है

अरे ! अब आप पूछेंगे नहीं की
मै कौन हूँ ?
पास में चौराहे पे खड़ा
अहिल्या का बुत
देखा ही होगा , आपने क्यों ?