रविवार, 19 जून 2016

पिता के नाम...............

पिता के नाम 


ओ पिता! 
तुम थक गये होगे 
चाहता हूँ
हाथ दाबूं
पाँव दाबूं
और हर लूँ
हर थकान
हर बोझ
                  अरसे से धरा                 
              जो सर तुम्हारे..............


ओ पिता !
सच-सच  कहो
तुम निरंतर पीली हुई जाती 
फसल का बोझ ढोते
झुक गये होगे 

ओ पिता !
तुम थक गये होगे 

शाम जब तुम लौटते हो
घर पसीने से नहाये सोचता  हूँ
रास्ते में पेड़ के नीचे 
घडी भर को रुके होगे 
क्यों नहीं मैं रास्ते का पेड़ 
जो देता तनिक आराम
थोड़ी छाँव 
तपती देह को ओ पिता !
सच-सच कहो 
उस रास्ते के 
पेड़ के निचे 
मुझे तुम याद करके 
रुक गये होगे 
 ओ पिता ! 
तुम थक गये होगे 

( प्रमोद तिवारी )
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ओ पिता,
तुम गीत हो घर के
और अनगिन काम दफ़्तर के।

छाँव में हम रह सकें यूँ ही
धूप में तुम रोज़ जलते हो
तुम हमें विश्वास देने को
दूर, कितनी दूर चलते हो

ओ पिता,
तुम दीप हो घर के
और सूरज-चाँद अंबर के।

तुम हमारे सब अभावों की
पूर्तियाँ करते रहे हँ
सकरमुक्ति देते ही रहे हमको
स्वयं दुख के जाल में फँसकरओ पिता,
तुम स्वर, नए स्वर के
नित नये संकल्प निर्झर के।
( कुँवर बेचैन )
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बाप की दौलत से यूँ दोनों ने हिस्सा ले लिया,
भाई ने दस्तार ले ली मैंने जूता ले लिया !

( मुनव्वर राना )

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दवाओं की शीशियाँ खाली पड़ी हैं लिफ़ाफ़े फटे हुए हैं चिट्ठियाँ पढ़ी
जा चुकी हैं अब तुम दहलीज़ पर बैठे इंतज़ार नहीं करते बिस्तर में
सिकुड़े नहीं पड़े रहते सुबह उठकर दरवाज़े नहीं खोलते तुम हवा पानी
और धूल के अदृश्य दरवाज़ों को खोलते हुए किसी पहाड़ नदी और
तारों की ओर चले गये हो ख़ुद एक पहाड़ एक नदी एक तारा बननेके लिए.

तुम कितनी आसानी से शब्दों के भीतर आ जाते थे. 
दुबली सूखतीतुन्हारी काया में दर्द का अण्त नहीं था 
और उम्मीद अन्त तक बचीहुई थी. 
धीरे-धीरे टूटती दीवारों के बीच तुम पत्थरों की अमरता खोज लेते थे.
 ख़ाली डिब्बों फटी हुई किताबों और घुन लगी चीज़ों में जो
जीवन बचा हुआ था उस पर तुम्हें विश्वास था. 
जब मैं लौटता तुम उनमें अपना दुख छिपा लेते थे. 
सारी लड़ाई तुम लड़ते थे जीतता सिर्फ़मैं था.
( मंगलेश डबराल )
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पिता…पिता जीवन है, सम्बल है, शक्ति है,
पिता…पिता सृष्टी मे निर्माण की अभिव्यक्ती है,
पिता अँगुली पकडे बच्चे का सहारा है,
पिता कभी कुछ खट्टा कभी खारा है,


पिता…पिता पालन है, पोषण है, परिवार का अनुशासन है,
पिता…पिता धौंस से चलना वाला प्रेम का प्रशासन है,
पिता…पिता रोटी है, कपडा है, मकान है,
पिता…पिता छोटे से परिंदे का बडा आसमान है,


पिता…पिता अप्रदर्शित-अनंत प्यार है,
पिता है तो बच्चों को इंतज़ार है,
पिता से ही बच्चों के ढेर सारे सपने हैं,
पिता है तो बाज़ार के सब खिलौने अपने हैं,


पिता से परिवार में प्रतिपल राग है,
पिता से ही माँ की बिंदी और सुहाग है,
पिता परमात्मा की जगत के प्रति आसक्ती है,
पिता गृहस्थ आश्रम में उच्च स्थिती की भक्ती है,


पिता अपनी इच्छाओं का हनन और परिवार की पूर्ती है,
पिता…पिता रक्त निगले हुए संस्कारों की मूर्ती है,
पिता…पिता एक जीवन को जीवन का दान है,
पिता…पिता दुनिया दिखाने का एहसान है,


पिता…पिता सुरक्षा है, अगर सिर पर हाथ है,
पिता नहीं तो बचपन अनाथ है,
पिता नहीं तो बचपन अनाथ है,
तो पिता से बडा तुम अपना नाम करो,


पिता का अपमान नहीं उनपर अभिमान करो,
क्योंकि माँ-बाप की कमी को कोई बाँट नहीं सकता,
और ईश्वर भी इनके आशिषों को काट नहीं सकता,
विश्व में किसी भी देवता का स्थान दूजा है,


माँ-बाप की सेवा ही सबसे बडी पूजा है,
विश्व में किसी भी तिर्थ की यात्रा व्यर्थ हैं,
यदि बेटे के होते माँ-बाप असमर्थ हैं,
वो खुशनसीब हैं माँ-बाप जिनके साथ होते हैं,


क्योंकि माँ-बाप के आशिषों के हाथ हज़ारों हाथ होते हैं
क्योंकि माँ-बाप के आशिषों के हाथ हज़ारों हाथ होते हैं


( ओम व्यास )
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तुम्हारी कब्र पर
मैं फातिहा पढ़ने नहीं आया


मुझे मालूम था
तुम मर नहीं सकते

तुम्हारी मौत की सच्ची ख़बर जिसने उड़ाई थी
वो झूठा था
वो तुम कब थे
कोई सूखा हुआ पत्ता हवा से हिल के टूटा था
मेरी आँखें 
तुम्हारे मंजरों में कैद हैं अब तक
मैं जो भी देखता हूँ
सोचता हूँ
वो - वही है
जो तुम्हारी नेकनामी और बदनामी की दुनिया थी
कहीं कुछ भी नहीं बदला

तुम्हारे हाथ
मेरी उँगलियों में साँस लेते हैं
मैं लिखने के लिए
जब भी कलम काग़ज़ उठाता हूँ
तुम्हें बैठा हुआ अपनी ही कुर्सी में पाता हूँ
बदन में मेरे जितना भी लहू है 
वो तुम्हारी 
लग्ज़िशो नाकामियों के साथ बहता है
मेरी आवाज़ में छुप कर
तुम्हारा ज़हन रहाता है

मेरी बीमारियों में तुम
मेरी लाचारियों में तुम
तुम्हारी कब्र पर जिसने तुम्हारा नाम लिक्खा है
वो झूठा है
तुम्हारी कब्र में मैं दफ्न हूँ
तुम मुझ में ज़िन्दा हो
कभी फ़ुर्सत मिले तो फातिहा पढ़ने चले आना



( निदा फाज़ली )
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शुक्रवार, 17 जून 2016

फेसबुक मित्र श्रृंखला - 1 ललित कुमार



न मैं मीर हूँ , न मैं ग़ालिब हूँ
न मैं पन्त हूँ, न मैं निराला हूँ 
न मैं लेखक हूँ, न मैं कवि हूँ
न मैं कोई कलमकार हूँ, न मैं कोई फनकार हूँ
बस एक आदमी हूँ जिसका ऊपर के लोगों से कोई रिश्ता है


जी हाँ, अगर आप साहित्य से जुड़े हैं. कविता, शेरों-शायरी में कुछ दिलचस्पी रखते हैं तो इन्टरनेट पर आपके लिए सर्वसुलभ साधन है 'कविताकोश'.  शायद आपने ने भी कभी जाने-अनजाने में इस साईट को देखा ही होगा. आज से करीब 10 साल पहले 2006 में  IT प्रोफेशनल ने यह सोचा की चलों इन्टरनेट पर कविता प्रेमियों के लिए एक ऐसी साईट बनायीं जाए जहाँ हर भारतीय भाषा में कविताओं का संकलन किया जा सके. बस यही से शुरुवात हो गयी कविताकोश प्रोजेक्ट की. आज कविताकोश में 93,804 पन्ने हैं. कविता, गीत,ग़ज़ल,नज़्म,भजन, जैसी तमाम विधाओं में काव्य का संकलन है.  अवधी,मैथिलि,अंगिका,मराठीभोजपुरी, राजस्थानी आदि क्षेत्रीय कोष के साथ-साथ  31 भाषाओँ में लोकगीत का अद्भुत संकलन है. वीरगाथा काल के चंदरबरदाई से लेकर वर्तमान में कुमार विश्वास तक के कवियों की रचनाओं का नागरी लिपि में संकलन केवल कविताकोश पर ही उपलब्ध है. इस पूरी परिकल्पना का आधार कविताकोश के संस्थापक ललित कुमार जी है. उपरोक्त पंक्तियाँ उन्ही के लिए हैं. मजरूह सुल्तानपुरी ने कभी कहा था


मैं अकेला ही चला था, जानिबे मंज़िल मगर,
 लोग साथ आते गये और कारवाँ बनता गया!

कविताकोश भी कुछ इसी तरह आगे बढ़ता गया और आज कविताकोश के साथ-साथ गद्यकोश की शुरुवात हो चुकी हैं. जैसा मैंने कहा था की इस श्रृंखला में मैं उन लोगों से आपका परिचय करवाऊंगा जो कुछ नायब कर रहे हैं. तो इसकी शुरुवात मैंने ललित जी से कर दी है. ललित जी से मेरी पहली मुलाकात फेसबुक पर कविताकोश के सिलसिले में ही हुई थी. कविताकोश पर कवितायेँ और शायरी तो मैं बहुत सालों से पढता आ रहा था पर एक बार कानपूर में सेंट्रल एक्साइज के राजीव गुप्ता जी ने मुनव्वर राणा के किसी शेर का जिक्र किया तो मैंने उसके आगे का शेर सुना दिया. बाद में पता चला की वो शेर उस दिन उन्होंने कविताकोश के फेसबुक पेज पर पढ़ा था. फिर उन्होंने कविताकोश और ललित जी के बारे में बताया. 
प्रत्यक्ष रूप से मैं ललित जी से इस बार (2016) के अंतर्राष्ट्रीय पुस्तक मेलें में मिल सका. उसके बाद से किसी न किसी सिलसिले में मिलना लगा रहता ही है. 


इसके अलावा वे  दशमलव पर हिंदी ब्लॉगर के रूप में पिछले 6-7 वर्षों से काफी सक्रीय है और Tech Welkin नाम से तकनिकी से सम्बंधित अंग्रेजी ब्लॉग भी चलाते हैं. 

अपनी उम्र वाली पीढ़ी जो ज्यादातर समय इन्टरनेट पर गुजरती है वो जब साहिर और फैज़ को इतनी आसानी से पढ़ पाती है, नीरज के गीत गा पाती है तो कही न कही कविताकोश का योगदान स्पष्ट हो जाता है. अंगिका, मगही, संथाली जैसी भाषाएँ जिनके बारे में कई लोगों ने सुना ही न हो उनमे लिखे गये उत्कृष्ट साहित्य को कविताकोश पर लाने से साहित्य और कविता का संरक्षण एवं वैश्वीकरण संभव हो पाया है. 
इसी श्रृंखला में मिलेंगे फिर किसी नायब व्यक्ति के साथ तब तक आप जुड़ सकते हैं ललित कुमार जी से  और उनके कार्यों के बारे में जान सकते हैं.

Kavitakosh:   www.kavitakosh.org
Gadykosh:     www.gadyakosh.org
Tech Welkin:  www.techwelkin.com
Dashmalav:   www.dashamlav.com


.............................................................................................................................आयुष शुक्ला 








शुक्रवार, 10 जून 2016

प्रेम कवितायेँ


प्रेम कवितायेँ

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बड़ा आसान होता है 
लिखना 
प्रेम कवितायेँ 
बस एक बार 
प्रेम में डूब जाओ
शब्द खुदबखुद 
उतर आएंगे कोरे कागज़ पर
लिख दो फिर
                     प्रेम कवितायेँ......................


पर तुम तो कहते थे
इतना आसान नहीं कविता लिखना 
बहुत ज्ञान चाहिए 
चाहिए छंद विधान 
यति लय गति और तुक
का भी रखा जाए ध्यान


कहता तो था मैं बहुत कुछ 
पर पता अब चला है
सीख कर किसने लिखी हैं यें
'प्रेम कवितायेँ'
दिल लगा है कही तभी 
कोई कीट्स बना होगा कहीं
मज़ाज बना है इश्क़ में डूबकर

बस चलो आज साथ बैठ जाओ
तो लिखे जाएँ कुछ और
'प्रेम कवितायेँ'