रविवार, 19 मार्च 2017

गंगा मेला................... मेला तो है पर गंगा कहाँ गयी?



हर बार की तरह इस बार भी गंगा मेला का आयोजन सरसैया घाट पर किया गया. वैसे तो ये शहर की पुरानी परंपरा है जो क्रांतिकारियों की याद दिलाती है . इस दिन शहर में होली से भी ज्यादा रंग खेला जाता है और शाम को घाट पर लगनें वाले मेले में सब जमा होकर एक- दूसरे से मिलते थे. फाग और कवि-सम्मेलन की परंपरा थी. मेले की परंपरा तो  आगे बढ़ी लेकिन उसकी रूह ख़त्म होती गयी. गंगा मेले में अब न गंगा है और न ही कोई मेला. बस इवेंट के स्टाल लगे हैं.

कानपुर में मेले का एक दृश्य- दैनिक भाष्कर 

हर बार की तरह इस बार भी पंडित राम जी त्रिपाठी गंगा और गाय का संरक्षण कर रहे थे और 300 मीटर की दूरी पर गंगा मरणासन्न पड़ी थी तथा मेलें में ही कुछ गाय पोलीथिन खाती घूम रही थी. चूँकि इस बार उतरप्रदेश के चुनावी रण का परिणाम आ चुका था तो अन्य पार्टियों के खेमें में शांति ही थी बस भारतीय जनता पार्टी, संघ परिवार, ABVP की रौनक देखनें लायक थी. बीच-बीच में जय श्री राम के नारों के साथ जत्थे जा रहे थे. कांग्रेस के स्टाल पर कोई नहीं था, जायसवाल जी भी मेले से निकल रहे थे. सबसे ज्यादा पत्रकारों के स्टाल देखनें को मिले, प्रेस क्लब, रिपोर्टर एसोसियेशन, जागरण, उजाला, हिंदुस्तान. गाँव कनेक्शन आदि-आदि. पिछली बार की तुलना में इस बार स्टाल कम लगे थे. शायद सब कुछ बहुत जल्दीबाज़ी में किया गया था. गैर-सरकारी संगठन भी ऐसे नहीं थे जिनसे कुछ जानकारी मिल सके. पिछली बार संदीप पाण्डेय और ऐसे कुछ सामाजिक कार्यकर्ताओं के स्टाल लगे थे जो RTI और उससे जुडी जानकरी दे रहे थे. आल इंडिया फॉरवर्ड ब्लाक, नौजवान भारत सभा, महिला संगठन आदि के भी स्टाल थे लेकिन इस बार मेला  सिर्फ और सिर्फ ब्राह्मण सभा, छत्रिय मच, उलेमा कौंसिल और फला जातीय-धार्मिक संगठन के नाम रहा.

पिछली  बार हिंदुस्तान नें गंगा आरती का आयोजन करवाया था बनारस से पूरी टीम आई थी. अफ़सोस इस बार गंगा है ही नहीं तो आरती किसकी करते? वैसे पिछली बार भी पानी कम था तो जबरदस्ती बैराज से पानी छोड़ा गया था जिससे रेती में किसानी करने वालों को काफी नुकसान हुआ था.

मेले ने रस्म अदायगी का स्वरुप ले लिया है. न इतिहास है न परम्परा. जिनकी वजह से मेला प्रारंभ हुआ उनका ध्यान न आयोजकों को रहा न प्रशासन को. आखिर हम किस दम पर इतिहास और परम्परा को संजोने का सपना देखते हैं? क्या सिर्फ राष्ट्रिय स्तर का इतिहास ही इतिहास है? वास्तव में इतिहास हमारे आस-पास है. परम्पराओं का समय के अनुसार ट्रांजीशन होता है और ट्रांजीशन फेज में कुछ लोग वाहक का काम करते हैं. अफ़सोस की शहर के वो वाहक सिर्फ अपने-अपने मठों के मठाधीश बन कर रह गयें हैं. शायद डॉक्टर रोशन जैकब के समय ब्रांड कानपुर करके एक कार्यक्रम हुआ था, उससे पहले भी कानपुर महोत्सव हुआ करता था. असल में समझने की बात ये है कि ये जो मेले की परंपरा थी वो ही कानपुर महोत्सव या ब्रांड कानपुर है जहाँ शहर के विविध लोग एक मंच पर बिना किसी ताम-झाम के मिल सकें.

Mridul Pandey, Anil Sindoor and Sanjeeba 

खैर बाकि जो है सो हई है. एक बात बड़ी अच्छी हुई कि आने वाली फिल्म 'कानपुर is कानपुर' पर व्यवस्थित रूप से काम शुरू हो गया. मृदुल पाण्डेय, संजीबा और अनिल सिन्दूर जी ने परंपरा वाहक बनने का जो बीड़ा उठाया है उसे शहर याद रखे या न रखे लेकिन शहर जिन्हें भुला चुका है चाहे वो विद्यार्थी जी हों, मौलाना हसरत मोहनी हों , झंडा ऊँचा रहे हमारा वाले पार्षद जी या खांटी कनपुरिया मुन्नू गुरु हों , उन सभी को याद करेगा.