मंगलवार, 29 सितंबर 2015
स्त्रीत्व किश्त - 1
रात के 11 बज के ३8 मिनट हो रहे थे। बारिश की वजह से आज घर आने में देर हो गयी थी। तीन बार डोर बेल बजाने के बाद गुड़िया ने दरवाजा खोला। दीवार घडी की टिक टिक की आवाज इतनी साफ़ सुनाई दे रही थी रही थी की मानो घर में कोई हो ही न। थोड़ी देर बाद आवाज आई
खाना खाते हुए अचानक नज़र सामने पड़े हुए सोफे पर गयी। कहते है यादे अकेलेपन को खोजती रहती है। अभी 2 दिन पहले ही माँ यही बैठ कर मुझे खाना खिला रही थी।
पर ये किसी आज़ादी की आँखों में आंसू ,हाथ में रोटी का कौर और पूरे घर में फैली हुई माँ की यादें। .............सिर्फ 2 दिन में कितना कुछ बदल गया
रात के 11 बज के ३8 मिनट हो रहे थे। बारिश की वजह से आज घर आने में देर हो गयी थी। तीन बार डोर बेल बजाने के बाद गुड़िया ने दरवाजा खोला। दीवार घडी की टिक टिक की आवाज इतनी साफ़ सुनाई दे रही थी रही थी की मानो घर में कोई हो ही न। थोड़ी देर बाद आवाज आई
' कपडे बदल लीजिये खाना लगा दिया है'।
खाना टेबल पर लग गया और फिर वैसा ही सन्नाट और घडी की टिक टिक मेरा साथ देने के लिए………………
खाना खाते हुए अचानक नज़र सामने पड़े हुए सोफे पर गयी। कहते है यादे अकेलेपन को खोजती रहती है। अभी 2 दिन पहले ही माँ यही बैठ कर मुझे खाना खिला रही थी।
कंपकपाते हाथो से मेरी गिलास में पानी डालते हुए माँ कह रही थी......
' बेटा ! जब देर हो जाया करे तो फ़ोन कर दिया करो ,
ज़ी को तसल्ली मिल जाती है '
उस दिन भी मै लेट था और आज भी। उस दिन माँ के सवाल थे। आज मै आज़ाद हु न कोई सवाल करने वाला न टोकने वाला।
पर ये किसी आज़ादी की आँखों में आंसू ,हाथ में रोटी का कौर और पूरे घर में फैली हुई माँ की यादें। .............सिर्फ 2 दिन में कितना कुछ बदल गया
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